वीर रस और करुण रस में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं–
1. ओजस्वी वीर घोषणाएँ एवं वीरता के गीत सुनने से वीर रस जागृत होता है, जबकि किसी प्रिय व्यक्ति या वस्तु का विनाश या अनिष्ट होने से करुण रस जागृत होता है।
2. वीर रस की निष्पत्ति होने से चित्त में उत्साह वर्धन होता है, जबकि करूण रस की निष्पत्ति होने से चित्त में विकलता आती है।
3. वीर रस का स्थायी भाव उत्साह है, जबकि करुण रस का स्थायी भाव शोक है।
4. वीर रस किसी महाकाव्य का प्रधान रस हो सकता है, जबकि करुण रस किसी खण्डकाव्य का प्रधान रस हो सकता है।
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ओजस्वी वीर घोषणाएँ या वीरता के गीत सुनकर तथा उत्साह वर्धक कार्यकलापों को देखने से वीर रस जागृत होता है। वीर रस का स्थायी भाव 'उत्साह' है। सहृदय के हृदय में स्थित उत्साह नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग होता है, तब वीर रस की निष्पत्ति होती है।
उदाहरण– 1. थर्राती है वसुधा सारी, है आसमान तड़तड़ा रहा।
अरि दल पर कूद पड़ूँ उड़कर, है रोम-रोम फड़फड़ा रहा।
2. हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतन्त्रता पुकारती।।
अराति सैन्य-सिन्धु में सुवाडवाग्नि से जलो।
प्रवीर हो जयी बनो, बढ़े चलो बढ़े चलो।।
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किसी प्रिय व्यक्ति या वस्तु के अनिष्ट या विनाश होने से व्यक्ति के मन में विकलता आती है। ऐसी स्थिति में करुण रस होता है। करुण रस का स्थायी भाव 'शोक' है। सहृदय के हृदय में स्थित शोक नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग होता है, तब करुण रस की निष्पत्ति होती है।
उदाहरण– 1. कौरवों का श्राद्ध करने के लिए,
याकि रोने को चिता के सामने।
शेष अब है रह गया कोई नहीं,
एक वृद्धा एक अंधे के सिवा।
2. अभी तो मुकुट बँधा था माथ,
हुए कल ही हल्दी के हाथ।
खुले भी न थे लाज के बोल,
खिले भी न चुम्बन शून्य कपोल।
हाय! रूक गया यहीं संसार,
बना सिन्दूर अनल अंगार।
3. हा राम! हा प्राण प्यारे!
जीवित रहूँ किसके सहारे?
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I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
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R F Temre
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